निजी अस्पतालों में दवा दुकानों पर दवा की कीमतों के संबंध में सरकार को करना है फैसला : न्यायालय
आशीष माधव
- 04 Mar 2025, 08:12 PM
- Updated: 08:12 PM
नयी दिल्ली, चार मार्च (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने निजी अस्पतालों के भीतर स्थित दवा दुकानों में दवाओं और चिकित्सा उपकरणों की अधिक कीमतों के संबंध में याचिका पर उचित नीतिगत निर्णय लेने का काम मंगलवार को सरकार पर छोड़ दिया।
एक जनहित याचिका में आरोप लगाया गया कि मरीजों को निजी अस्पतालों में संचालित दवा दुकानों से ऊंची दर पर दवाएं और चिकित्सा उपकरण खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है।
न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि उसके द्वारा दिया गया कोई भी अनिवार्य निर्देश निजी अस्पतालों के कामकाज में बाधा उत्पन्न कर सकता है और इसका व्यापक प्रभाव पड़ सकता है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने विधि छात्र सिद्धार्थ डालमिया और उनके वकील पिता विजय पाल डालमिया द्वारा दायर जनहित याचिका का निपटारा कर दिया।
याचिका में आरोप लगाया गया कि निजी अस्पताल मरीजों और उनके तीमारदारों को परिसर स्थित दवा दुकानों या उनसे संबद्ध दवा दुकानों से दवाइयां खरीदने के लिए मजबूर करते हैं और उनसे दवाओं, प्रतिरोपण और चिकित्सा उपकरणों के लिए ऊंची कीमतें वसूली जाती हैं।
पीठ ने कहा, ‘‘हम इस याचिका का निपटारा करते हुए यह निर्देश देते हैं कि सभी राज्य सरकारें इस मुद्दे पर विचार करें और उचित नीतिगत निर्णय लें।’’ पीठ ने कहा कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और राज्य सरकारें अपनी स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रासंगिक नियामक उपाय कर सकती हैं।
न्यायालय ने इसे नीतिगत मुद्दा करार देते हुए कहा कि नीति निर्माताओं को इस मामले पर समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और उचित दिशा-निर्देश तैयार करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मरीजों और उनके तीमारदारों का शोषण न हो और साथ ही, निजी संस्थाओं को स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रवेश करने से हतोत्साहित या अनुचित प्रतिबंध न लगाया जाए।
शीर्ष अदालत ने कहा कि निजी अस्पतालों को जनहित याचिका पर कोई अनिवार्य निर्देश जारी करना उचित नहीं होगा, लेकिन निजी अस्पतालों द्वारा मरीजों और उनके तीमारदारों की स्थिति का अनुचित लाभ उठाकर उनका शोषण करने की कथित समस्या के बारे में राज्य सरकारों को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता पर बल दिया।
पीठ ने कहा कि संविधान के तहत सरकार का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराए, लेकिन जनसंख्या वृद्धि के कारण उसे अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए निजी अस्पतालों की मदद लेनी पड़ी।
पीठ ने कहा कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का नागरिकों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित है।
स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी अस्पतालों के योगदान की सराहना करते हुए पीठ ने कहा कि न्यायालय द्वारा दिया गया कोई भी अनिवार्य निर्देश उनके कामकाज में बाधा उत्पन्न कर सकता है तथा इसका व्यापक प्रभाव हो सकता है।
अदालत ने केंद्र के इस रुख पर गौर किया कि मरीजों या उनके परिजनों पर अस्पताल स्थित दवा दुकानों या किसी खास दुकान से दवाइयां, प्रतिरोपण या चिकित्सा उपकरण लेने की कोई बाध्यता नहीं है। पीठ ने हैरानी जताते हुए सवाल किया कि क्या केंद्र या राज्यों के लिए ऐसी नीति बनाना विवेकपूर्ण होगा जो निजी अस्पतालों की प्रत्येक गतिविधि को विनियमित करे।
न्यायालय 14 मई, 2018 को उस याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत हो गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि दवा निर्माताओं के सहयोग और मिलीभगत से दवाओं, चिकित्सा उपकरणों और सामग्रियों की कीमतें बढ़ा दी गई थीं।
याचिकाकर्ता के पिता ने दलील दी कि देश भर के अस्पतालों में मरीजों की कम जानकारी और प्रतिकूल परिस्थितियों का फायदा उठाकर लोगों को वहां से या परिसर स्थित दवा दुकानों से दवाइयां खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
अपनी मां के उपचार के दौरान आई समस्याओं का जिक्र करते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि उनकी मां को स्तन कैंसर का निदान हुआ था और अब वह ठीक हो चुकी हैं। उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि उनकी मां को सर्जरी करानी पड़ी थी, जिसके बाद छह बार कीमोथेरेपी और अन्य उपचार के साथ-साथ हर 21 दिन में बिसेलटिस इंजेक्शन भी देना पड़ा था।
याचिका में कहा गया है कि उपचार के दौरान उन्हें पता चला कि बिसेलटिस इंजेक्शन उन्हें 61,132 रुपये की अधिकतम कीमत पर बेचा गया था, जबकि उसी कंपनी द्वारा निर्मित और विपणन की गई वही दवा खुले बाजार में 50,000 रुपये की रियायती दर पर बेची जा रही थी।
इसके अलावा, चार इंजेक्शन खरीदने पर कंपनी द्वारा मरीज सहायता कार्यक्रम के तहत एक इंजेक्शन मरीज को मुफ्त दिया जाता है। याचिका में कहा गया कि मुफ्त इंजेक्शन देने से प्रति इंजेक्शन की प्रभावी लागत करीब 41,000 रुपये आई, लेकिन इसे 61,132 रुपये की अधिकतम बिक्री मूल्य (एमआरपी) पर बेचा जा रहा है।
डालमिया ने तर्क दिया कि अस्पतालों और उनकी परिसर स्थित दुकानों ने उन्हें दवा कंपनी द्वारा दी जा रही मुफ्त इंजेक्शन नहीं दी, और उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि अस्पतालों, नर्सिंग होम और स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों द्वारा मरीजों को केवल उनसे ही दवा खरीदने के लिए मजबूर करके ‘‘लूटने और ठगने’’ के लिए एक संगठित पद्धति अपनाई जाती है।
भाषा आशीष