दुनिया बदल गई लेकिन यूएनएससी अटका हुआ है: पूर्व राजनयिक कंबोज
वैभव सुरेश
- 07 Apr 2025, 07:32 PM
- Updated: 07:32 PM
गांधीनगर, सात अप्रैल (भाषा) संयुक्त राष्ट्र में भारत की पूर्व स्थायी प्रतिनिधि रुचिरा कंबोज ने सोमवार को कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की स्थापना जिस उद्देश्य के लिए की गई, उसकी पूर्ति नहीं हो पा रही और कई देश इसका विस्तार चाहते हैं।
कंबोज ने दोहराया कि 1945 की दुनिया (जब यूएनएससी का गठन हुआ था) 2025 की दुनिया जैसी नहीं है। उन्होंने कहा कि दुनिया की 85 प्रतिशत आबादी वाले ‘ग्लोबल साउथ’ को संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से बाहर रखा जाना ‘आज बहुपक्षवाद के लिए एक बहुत ही वास्तविक चुनौती है’।
‘ग्लोबल साउथ’ से तात्पर्य उन देशों से है, जिन्हें अक्सर विकासशील, कम विकसित अथवा अविकसित के रूप में जाना जाता है। ऐसे देश मुख्य रूप से अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में स्थित हैं।
वह यहां राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय में ‘21वीं सदी में बहुपक्षवाद: उभरती चुनौतियों के अनुकूल होना’ विषय पर बोल रही थीं।
उन्होंने कहा, ‘‘क्या आपको लगता है कि यूएनएससी की संरचना समावेशी है? स्पष्ट रूप से नहीं। ‘ग्लोबल साउथ’ कहां है? दुनिया की 85 प्रतिशत आबादी, और ग्लोबल साउथ को यूएनएससी में जगह नहीं मिलती। संयुक्त राष्ट्र का गठन 1945 में 51 देशों की सदस्यता के साथ हुआ था। आज इसमें 193 देश हैं अर्थात इसमें चार गुना वृद्धि हुई है, लेकिन यूएनएससी समय के मामले में अटका हुआ है, समकालीन नहीं है, वह उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर रहा है, जिसके लिए इसे बनाया गया था।’’
कंबोज ने कहा कि भारत और जी4 के अन्य सदस्यों के साथ-साथ विकासशील देशों के एल69 समूह और अफ्रीकी संघ का मानना है कि यूएनएससी का विस्तार करके नए स्थायी और अस्थायी सदस्यों को शामिल किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘‘परिषद के काम करने के तरीके अधिक पारदर्शी, अधिक लोकतांत्रिक होने चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। ग्लोबल साउथ को बातचीत की मेज पर लाना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर निर्णय लेने को अधिक वैध, अधिक प्रतिनिधित्व वाला और स्पष्ट रूप से अधिक प्रभावी बनाना है, तो हमें बातचीत की मेज पर आवाजों की अधिक विविधता की आवश्यकता है।’’
उन्होंने कहा कि इस दिशा में चर्चा भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से प्रेरित है, यह मुद्दा बहुत संवेदनशील बना हुआ है, क्योंकि ऐसा कोई भी परिवर्तन शक्ति संतुलन को बिगाड़ देगा, जिसे 1945 में ज्यादातर पश्चिमी देशों द्वारा ‘बहुत चतुराई से और स्पष्ट रूप से स्थापित’ किया गया था।
उन्होंने कहा, ‘‘और अगर कोई विस्तार होता है, तो यह शक्ति के उस बहुत ही सावधानीपूर्ण बनाए गए संतुलन को बिगाड़ देगा। यह एक विशिष्ट क्लब है। पांच देश 188 देशों की इच्छा को दरकिनार कर देते हैं।’’
कंबोज ने हालांकि, उन्होंने आशावादी बने रहने की आवश्यकता पर जोर दिया क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में अधिकांश राष्ट्रों को लगता है कि सुधार समय की मांग है।
उन्होंने कहा कि बहुपक्षवाद का यह विचार कि देश वैश्विक सहयोग के लिए एक साथ काम करते हैं, वैश्विक स्थिरता का आधार बना हुआ है, लेकिन आज दबाव का सामना कर रहा है, कई लोग कह रहे हैं कि यह मर रहा है या आईसीयू में है और कुछ का मानना है कि यह मर चुका है।
उन्होंने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि बढ़ती प्रतिद्वंद्विता, संभावित व्यापार युद्ध, जलवायु संकट और क्षेत्रवाद की ओर झुकाव के कारण यह दबाव में है। उन्होंने कहा, ‘‘विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं ने शीत युद्ध जैसी अतीत की चुनौतियों के बावजूद कुछ हद तक काम किया है, जिसमें अरबों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया, वैश्विक व्यापार का विस्तार हुआ और बड़े युद्ध टाले गए। लेकिन 1945 के बाद से दुनिया बदल गई है और सभी इस बात से सहमत होंगे कि 1945 की दुनिया 2025 की दुनिया नहीं है।’’
उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के स्थायी पांच सदस्यों को वीटो की असीमित शक्ति प्राप्त है, जबकि संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रत्येक सदस्य के पास एक वोट है, लेकिन उन प्रस्तावों में कोई कानूनी बाध्यकारी शक्ति नहीं है।
भाषा वैभव