मकोका मामले में त्वरित सुनवाई के अधिकार को कमतर नहीं किया जा सकता : उच्च न्यायालय
पारुल सुरेश
- 08 Apr 2025, 06:17 PM
- Updated: 06:17 PM
नयी दिल्ली, आठ अप्रैल (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक आपराधिक गिरोह के कथित सदस्य को जमानत देते हुए कहा कि त्वरित सुनवाई का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अहम पहलू है और इसे मकोका से जुड़े गंभीर मामलों में भी कमतर नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने कहा कि आरोपी अरुण महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के तहत दर्ज मौजूदा प्राथमिकी के सिलसिले में आठ साल से अधिक समय से हिरासत में था।
उन्होंने सात अप्रैल को पारित फैसले में कहा कि मुकदमा अभी “अपने निष्कर्ष से बहुत दूर है” और आरोपी की लगातार कैद अतीत में एक अन्य मामले में चार हफ्ते के लिए पैरोल पर उसकी रिहाई के मद्देनजर अनुपयुक्त है।
फैसले में कहा गया है, “भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हमारे संवैधानिक न्यायशास्त्र में समाहित त्वरित सुनवाई का अधिकार बचाव का कोई गुप्त हथियार नहीं है। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक अहम पहलू है और इसे केवल इसलिए कमतर नहीं किया जा सकता कि मामला मकोका जैसे विशेष कानून के दायरे में आता है।”
इसमें कहा गया है, “यह मामला पूरी तरह से अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक जांच के दायरे में आता है, जो त्वरित सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है।”
उच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य की ओर से दाखिल वस्तु-स्थिति रिपोर्ट में अदालत को बताया गया कि अभियोजन पक्ष के 60 गवाहों में से अब तक केवल 35 से ही पूछताछ की गई है।
उसने कहा, “अत्यधिक देरी और हिरासत की लंबी अवधि याचिकाकर्ता को अनुच्छेद 21 के तहत हासिल मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।”
अरुण को जून 2016 में मनोज मोरखेड़ी गिरोह का सदस्य होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जो मुख्य रूप से दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) और आसपास के राज्यों में सक्रिय एक संगठित आपराधिक गिरोह है।
इस गिरोह पर हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, जबरन वसूली और डकैती सहित अन्य गंभीर अपराधों में शामिल होने का संदेह है।
दिल्ली पुलिस के वकील ने अरुण की जमानत याचिका का इस आधार पर विरोध किया था कि वह एक “खूंखार अपराधी” है और अगर उसे जमानत पर रिहा किया गया, तो वह अपराध करना जारी रखेगा, गवाहों को धमकाएगा और न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करेगा।
हालांकि, उच्च न्यायालय ने कहा कि शीर्ष अदालत ने कहा है कि जब विशेष कानूनों के तहत सुनवाई में अनावश्यक रूप से देरी होती है, तो जमानत के कड़े प्रावधानों और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश की जानी चाहिए।
अदालत ने कहा कि पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने अरुण को पांच साल पहले एक अन्य मामले में चार हफ्ते की पैरोल दी थी, जिसमें वह उम्रकैद की सजा काट रहा है।
उसने कहा कि एक अन्य मामले में अनुकूल न्यायिक आदेश के बावजूद राहत देने से इनकार नहीं किया जा सकता, खासकर तब जब वर्तमान मामले में मुकदमा धीमी गति से चल रहा हो।
अदालत ने अरुण को 50,000 रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही राशि के जमानती मुचलके पर कुछ शर्तों के अधीन नियमित जमानत दे दी।
भाषा पारुल