राज्यपालों और राष्ट्रपति पर निश्चित समयसीमा लागू करने से 'संवैधानिक अव्यवस्था' पैदा होगी: केंद्र
आशीष प्रशांत
- 16 Aug 2025, 07:48 PM
- Updated: 07:48 PM
नयी दिल्ली, 16 अगस्त (भाषा) केंद्र ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि राज्य विधानसभा में पारित विधेयकों पर कदम उठाने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर निश्चित समयसीमा थोपने का मतलब होगा कि सरकार के एक अंग द्वारा संविधान में उसे प्रदान नहीं की गई शक्तियों का प्रयोग करना और इससे ‘‘संवैधानिक अव्यवस्था’’ पैदा होगी।
केंद्र ने राष्ट्रपति संदर्भ में दाखिल लिखित दलीलों में यह बात कही है, जिसमें संवैधानिक मुद्दे उठाए गए हैं कि क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से निपटने के संबंध में समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।
केंद्र ने कहा, “किसी एक अंग की कथित विफलता, निष्क्रियता या त्रुटि किसी अन्य अंग को ऐसी शक्तियां ग्रहण करने के लिए अधिकृत नहीं करती है और न ही कर सकती है, जो संविधान ने उसे प्रदान नहीं की हैं। यदि किसी अंग को जनहित या संस्थागत असंतोष या संविधान के आदर्शों से प्राप्त औचित्य के आधार पर किसी अन्य अंग के कार्यों को अपने ऊपर लेने की अनुमति दी जाती है, तो इसका परिणाम संवैधानिक अव्यवस्था होगी, जिसकी परिकल्पना इसके निर्माताओं ने नहीं की थी।"
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह नोट दाखिल किया है। इसमें दलील दी गई है कि उच्चतम न्यायालय के निश्चित समयसीमा लागू करने से संविधान द्वारा स्थापित संवेदनशील संतुलन भंग हो जाएगा और कानून का शासन नकार दिया जाएगा।
इसमें कहा गया है, “यदि कोई चूक हो, तो उसका समाधान संवैधानिक रूप से स्वीकृत तंत्रों के माध्यम से किया जाना चाहिए, जैसे चुनावी जवाबदेही, विधायी निरीक्षण, कार्यपालिका की जिम्मेदारी, संदर्भ प्रक्रिया या लोकतांत्रिक अंगों के बीच परामर्श प्रक्रिया आदि। इस प्रकार, अनुच्छेद 142 न्यायालय को ‘मान्य सहमति’ की अवधारणा बनाने का अधिकार नहीं देता है, जिससे संवैधानिक और विधायी प्रक्रिया उलट जाती है।"
राज्यपाल और राष्ट्रपति के पद “राजनीतिक रूप से पूर्ण” हैं और “लोकतांत्रिक शासन के उच्च आदर्शों” का प्रतिनिधित्व करते हैं। नोट में कहा गया है कि किसी भी कथित चूक का समाधान राजनीतिक और संवैधानिक तंत्र के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि "न्यायिक" हस्तक्षेप के माध्यम से।
मेहता ने कहा है कि यदि कोई कथित मुद्दा है, तो उसका राजनीतिक उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि न्यायिक।
उच्चतम न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए, मेहता ने दलील दी है कि अनुच्छेद 200 और 201, जो राज्य विधेयक प्राप्त होने के बाद राज्यपालों और राष्ट्रपति के विकल्पों से संबंधित हैं, में जानबूझकर कोई समय-सीमा नहीं दी गई है।
मेहता ने कहा, "जब संविधान कुछ निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना चाहता है, तो वह ऐसी समय-सीमा का विशेष रूप से उल्लेख करता है। जहां संविधान ने शक्तियों के प्रयोग को जानबूझकर लचीला रखा है, वहां कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई। न्यायिक दृष्टि से ऐसी सीमा निर्धारित करना संविधान में संशोधन करना होगा।"
नोट में कहा गया है कि नियंत्रण और संतुलन के बावजूद, कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो राष्ट्र के तीनों अंगों में से किसी के लिए भी अनन्य हैं और अन्य किसी के द्वारा उन पर अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। इसमें यह भी कहा गया है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे शीर्ष पद भी इसी क्षेत्र में आते हैं।
इसमें कहा गया, "राज्यपाल की सहमति एक उच्च विशेषाधिकार, पूर्ण शक्ति है जो प्रकृति में विशिष्ट है। यद्यपि सहमति की शक्ति का प्रयोग कार्यपालिका के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति द्वारा किया जाता है, तथापि, सहमति स्वयं विधायी प्रकृति की होती है।’’
नोट में कहा गया है, “सहमति की यह मिश्रित और अनूठी प्रकृति इसे एक संवैधानिक स्वरूप प्रदान करता है, जिसके तहत न्यायिक रूप से प्रबंधनीय कोई मानक मौजूद नहीं हैं। इस प्रकार, न्यायिक समीक्षा के विस्तारित स्वरूप के बावजूद, सहमति जैसे कुछ क्षेत्र अब भी हैं जो इसके दायरे में नहीं आते हैं।’’
इसमें कहा गया, ‘‘न्यायिक समीक्षा की पारंपरिक धारणा को हटाकर सहमति पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि सहमति प्रदान करने या न देने के दौरान जिन कारकों की भूमिका होती है, उनका कोई कानूनी या संवैधानिक समानांतर नहीं है। इस प्रकार, सहमति का यह अनूठा द्वंद्व एक विशिष्ट रूप से संतुलित न्यायिक दृष्टिकोण का हकदार है।"
न्यायालय ने राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई के लिए समय निर्धारित किया है और 19 अगस्त से सुनवाई शुरू करने का प्रस्ताव दिया है।
प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र और राज्यों से अपनी लिखित दलीलें दाखिल करने को कहा है। पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर भी शामिल हैं।
पीठ ने पक्षकारों से समयसीमा का सख्ती से पालन करने को कहा है। पीठ ने कहा कि वह सबसे पहले 19 अगस्त को एक घंटे के लिए केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों द्वारा राष्ट्रपति संदर्भ की स्वीकार्यता पर सवाल उठाने वाली प्रारंभिक आपत्तियों पर सुनवाई करेगी।
न्यायालय ने कहा है कि राष्ट्रपति संदर्भ का समर्थन करने वाले केंद्र और राज्यों की सुनवाई 19, 20, 21 और 26 अगस्त को होगी, जबकि इसका विरोध करने वालों की सुनवाई 28 अगस्त और 2, 3 और 9 सितंबर को होगी।
मई में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानना चाहा था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है।
राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय के आठ अप्रैल के फैसले के आलोक में यह पूछा था। शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों के मामले में यह फैसला दिया था।
फैसले में पहली बार यह निर्धारित किया गया कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए रोके गए विधेयकों पर संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
पांच पृष्ठों के संदर्भ में, राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय जाननी चाही।
फैसले में सभी राज्यपालों के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के संबंध में समय-सीमा निर्धारित की गई थी और यह व्यवस्था दी गई थी कि राज्यपालों को उनके समक्ष प्रस्तुत किसी भी विधेयक के संबंध में अनुच्छेद 200 के तहत कार्यों के प्रयोग में कोई विवेकाधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा।
न्यायालय ने कहा था कि यदि राष्ट्रपति राज्यपाल द्वारा विचारार्थ भेजे गए विधेयक पर अपनी मंजूरी नहीं देते हैं तो राज्य सरकारें सीधे उच्चतम न्यायालय का रुख कर सकती हैं।
भाषा आशीष