वक्त आ गया है कि मातृ स्वायत्तता और भ्रूण अधिकारों के मुद्दे पर ध्यान दिया जाए: दिल्ली उच्च न्यायालय
सुभाष दिलीप
- 13 Sep 2025, 09:40 PM
- Updated: 09:40 PM
नयी दिल्ली, 13 सितंबर (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि वक्त आ गया है कि कानून निर्माता मातृ स्वायत्तता और भ्रूण के अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने के प्रश्न पर विचार करें।
अदालत ने कहा कि वैधानिक सीमा से परे गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग करने संबंधी मामलों की बढ़ती संख्या के साथ, भ्रूण की जीवनक्षमता (फीटल वाइअबिलटी) का प्रश्न अत्यधिक महत्व प्राप्त कर चुका है, और इस विषय का अंतिम समाधान करने की जिम्मेदारी विधि निर्माण करने वाली संस्था पर ही निर्भर करती है।"
‘भ्रूण की जीवनक्षमता' से तात्पर्य उस अवस्था से है, जहां भ्रूण गर्भ के बाहर जीवित रह सकता है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक न्यायालयों ने, विधायी स्पष्टता के अभाव में, प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास विशेष मामलों के आधार पर निर्णय के माध्यम से किया है। अदालत ने कहा कि हालांकि, एक स्पष्ट कानूनी ढांचे की कमी के कारण यह विषय अभी भी अनसुलझा है।
अदालत ने यह टिप्पणी 15 वर्षीय नाबालिग किशोरी को 27 सप्ताह के गर्भ को चिकित्सक की देखरेख में गिराने करने की अनुमति देते हुए की। उसकी गर्भावस्था, उसके साथ हुए यौन उत्पीड़न का परिणाम है।
कानून को भ्रूण की जीवनक्षमता अवस्था (स्टेज ऑफ वाइअबिलटी) में मातृ स्वायत्तता और भ्रूण अधिकारों के बीच संतुलन को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए।
न्यायमूर्ति अरुण मोंगा ने शुक्रवार को दिए अपने फैसले में कहा, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तक ऐसी स्पष्टता प्रदान नहीं की जाती, अदालतें इस नाजुक रास्ते पर चलती रहेंगी। लेकिन इस मामले का समाधान करने की अंतिम ज़िम्मेदारी कानून बनाने वाली संस्था की है। अब समय आ गया है कि देश के विधि निर्माता इस प्रश्न का स्पष्ट रूप से समाधान करें।’’
उच्च न्यायालय ने कहा कि भ्रूण के गंभीर समस्याओं से ग्रसित होने की स्थिति वाले मामलों में अदालतों ने 28 या 32 सप्ताह तक भी गर्भपात की अनुमति दी है।
अदालत ने कहा कि जहां भ्रूण स्वस्थ है, और गैर-चिकित्सकीय आधार पर गर्भपात की अनुमति देने का अनुरोध किया जाता है, वहां अदालतों ने स्वतंत्र रूप से जीवित रहने में सक्षम भ्रूण के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए राहत देने से इनकार कर दिया है।
उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘हालांकि, एक बड़ा सवाल उठता है कि एक स्वस्थ भ्रूण के अधिकारों के संबंध में कानून की क्या स्थिति है, जो जीवित पैदा हो सकता है?
अदालत ने कहा, ‘‘यह मुद्दा ध्यान देने योग्य है। हालांकि, संवैधानिक न्यायालयों ने, विधायी स्पष्टता के अभाव में, विशेष मामलों में निर्णय के आधार पर प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है। फिर भी स्पष्ट वैधानिक ढांचे के अभाव के कारण मामला अभी भी अनसुलझा है।’’
वर्तमान मामले में, अदालत ने कहा कि प्रक्रिया के दौरान, यदि उपस्थित डॉक्टरों को यह लगता है कि नाबालिग लड़की के जीवन को गंभीर खतरा है, तो उन्हें गर्भपात प्रक्रिया को रोकने या रद्द करने का पूरा विवेकाधिकार होना चाहिए।
इसने अस्पताल को डीएनए परीक्षण के लिए भ्रूण को सुरक्षित रखने का भी निर्देश दिया, क्योंकि लंबित आपराधिक कार्यवाही के संबंध में इसकी आवश्यकता हो सकती है।
अदालत ने कहा कि यदि शिशु जीवित पैदा होता है, तो अस्पताल अधीक्षक यह सुनिश्चित करेगा कि बच्चे को हर संभव और व्यवहार्य चिकित्सा सहायता प्रदान की जाए और संबंधित बाल कल्याण समिति को आवश्यक कदम उठाने चाहिए।
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