न्यायाधिकरणों ने अवामी एक्शन कमेटी समेत जम्मू कश्मीर के दो समूहों पर प्रतिबंध कायम रखा
वैभव नरेश
- 19 Sep 2025, 04:03 PM
- Updated: 04:03 PM
नयी दिल्ली, 19 सितंबर (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय के दो न्यायाधिकरणों ने कश्मीर के प्रभावशाली धर्मगुरु मीरवाइज उमर फारूक की अध्यक्षता वाली अवामी एक्शन कमेटी और शिया नेता मसरूर अब्बास अंसारी के नेतृत्व वाली जम्मू-कश्मीर इत्तिहादुल मुस्लिमीन पर केंद्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को बरकरार रखा है।
एक ही न्यायाधीश, न्यायमूर्ति सचिन दत्ता की अध्यक्षता वाले दोनों न्यायाधिकरणों ने पाया कि उनके समक्ष प्रस्तुत सामग्री और साक्ष्यों से पता चला है कि दोनों समूहों को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत गैरकानूनी संगठन घोषित करने का पर्याप्त औचित्य है।
दोनों न्यायाधिकरणों द्वारा जारी एक जैसे आदेश के अनुसार, ‘‘इस प्रकार, यह न्यायाधिकरण, यूएपीए और उसके नियमों में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने और स्वतंत्र रूप से और निष्पक्ष रूप से रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री और साक्ष्यों का मूल्यांकन करने के बाद, इस दृढ़ और सुविचारित निष्कर्ष पर पहुंचता है कि संगठन को यूएपीए की धारा 3(1) के तहत गैरकानूनी संगठन घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण हैं।’’
गत 11 मार्च को, दोनों समूहों पर प्रतिबंध लगाते हुए, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा था कि अवामी एक्शन कमेटी (एएसी) और जम्मू-कश्मीर इत्तिहादुल मुस्लिमीन (जेकेआईएम) ऐसी गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त हैं जो देश की अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा के लिए हानिकारक हैं।
इसमें कहा गया है कि दोनों समूहों के नेता और सदस्य जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी, पृथकतावादी और आतंकवादी गतिविधियों का समर्थन करने सहित गैरकानूनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए धन जुटाने में शामिल रहे हैं।
मंत्रालय के अनुसार इन समूहों के सदस्य अपनी गतिविधियों के माध्यम से देश के संवैधानिक प्राधिकार और संवैधानिक व्यवस्था के प्रति घोर अनादर प्रदर्शित करते हैं। मंत्रालय ने कहा कि ये संगठन राष्ट्र-विरोधी और विध्वंसक गतिविधियों में शामिल होकर और लोगों में असंतोष के बीज बो कर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने और सहायता करने में शामिल थे।
इसमें कहा गया है कि एएसी और जेकेआईएम लोगों को कानून-व्यवस्था को अस्थिर करने के लिए उकसा रहे थे, जम्मू-कश्मीर को भारत संघ से अलग करने के लिए हथियारों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित कर रहे थे और स्थापित सरकार के खिलाफ नफरत को बढ़ावा दे रहे थे।
न्यायाधिकरण ने 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत से जम्मू-कश्मीर में व्याप्त आतंकवादी और अलगाववादी गतिविधियों से संबंधित एक मामले में राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) द्वारा दायर आरोपपत्र का हवाला दिया।
सरकार द्वारा न्यायाधिकरण के समक्ष प्रस्तुत सामग्री में एक अदालत के समक्ष दायर एनआईए का आरोपपत्र भी शामिल था, जिसमें पिछले कई दशकों से घाटी में नागरिकों और सुरक्षा बलों पर हमलों सहित हिंसा का उल्लेख था।
इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) लश्कर-ए-तैयबा, हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी, जैश-ए-मोहम्मद जैसे कई आतंकवादी संगठनों को सक्रिय रूप से समर्थन दे रही थी, जो हमलों में शामिल थे।
आरोपपत्र में कहा गया है, ‘‘पाकिस्तान न केवल आतंकवादी समूहों को प्रशिक्षण दे रहा है, बल्कि उन्हें आर्थिक और कूटनीतिक रूप से भी समर्थन दे रहा है। आतंकवादियों की हिंसक गतिविधियों और जम्मू-कश्मीर से अल्पसंख्यक समुदाय के बड़े पैमाने पर पलायन के बीच, वर्ष 1993 में 26 राजनीतिक/सामाजिक/धार्मिक संगठनों के एक समूह के रूप में ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का गठन किया गया, जिसने अलगाववादी गतिविधियों को एक राजनीतिक मोर्चे का रूप दिया।’’
एनआईए ने कहा कि मामले की जांच में जेकेएलएफ, हिज्बुल मुजाहिदीन और लश्कर जैसे विभिन्न आतंकवादी संगठनों की पाकिस्तान और उसकी एजेंसियों द्वारा वित्त पोषित अलगाववादी समूह एपीएचसी के साथ मिलीभगत से रची गई एक साजिश का पर्दाफाश हुआ है।
इसका उद्देश्य भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना और जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की वकालत करना था।
एनआईए ने कहा कि एपीएचसी, जो शुरू में एक राजनीतिक मोर्चे के रूप में गठित किया गया था, अपने अलगाववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कश्मीर में हिंसा और अशांति भड़काने में सक्रिय रूप से शामिल पाया गया।
भाषा वैभव