क्या बेंजामिन नेतन्याहू ‘ग्रेटर इजराइल’ के सपने को साकार करने की मुहिम पर हैं?
(द कन्वरसेशन) सुरेश दिलीप
- 22 Sep 2025, 04:54 PM
- Updated: 04:54 PM
(अमीन सईकाल, ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी)
सिडनी, 22 सितम्बर (द कन्वरसेशन) इजराइल-फलस्तीन संघर्ष के समाधान के लिए जहां दुनिया के अधिकतर देश द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को समर्थन दे रहे हैं, वहीं इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू 'ग्रेटर इजराइल' की अपनी परिकल्पना को साकार करने की दिशा में अग्रसर दिख रहे हैं।
गाजा में इजराइली सैन्य अभियान को लेकर अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं का शिकार होने और अपने देश के अलग-थलग पड़ने की बढ़ती संभावनाओं के बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि नेतन्याहू अपना आधा लक्ष्य हासिल कर चुके हैं।
ऐसा लगता है कि अब 'द्वि-राष्ट्र समाधान' महज एक राजनीतिक नारा बनकर रह गया है, जिसे भले ही दुनिया के विभिन्न देश फलस्तीनियों के प्रति समर्थन दर्शाने के लिए दोहराते रहे हों, जबकि इजराइल उस अवधारणा को जड़ से ही समाप्त करने में जुटा है।
वेस्ट बैंक, पूर्वी यरुशलम और गाजा पट्टी को मिलाकर वैसे स्वतंत्र फलस्तीन देश बनाने की संभावनाएं पहले कभी इतनी क्षीण नहीं हुईं, जो इजराइल के साथ शांति और सुरक्षा के साथ रह सके।
इजराइल को ट्रम्प का अटूट समर्थन हासिल है
इस माह के प्रारंभ में कतर में हमास नेताओं पर इजराइल के हमले के बाद कतर ने एक आपात अरब-इस्लामी शिखर सम्मेलन बुलाया, ताकि यहूदी देश को सामूहिक जवाब दिया जा सके, लेकिन यह सम्मेलन निष्प्रभावी रहा।
इस बैठक में कतर पर हमले की कड़ी निंदा तो जरूर हुई, लेकिन इस बारे में कोई योजना नहीं बन पाई कि इज़राइल को अपने पड़ोसियों पर हमला करने से कैसे रोका जाए या संयुक्त राष्ट्र आयोग द्वारा गाजा में ‘नरसंहार’ कहे जाने वाले हमले को कैसे रोका जाए।
पश्चिम एशिया के नेता भली-भांति जानते हैं कि केवल अमेरिका ही इजराइल पर प्रभाव डाल सकता है, लेकिन वॉशिंगटन इसके लिए तैयार नहीं दिख रहा। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आश्वस्त किया है कि इजराइल दोबारा कतर पर हमला नहीं करेगा और इसी क्रम में उनके विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने इजराइल जाकर नेतन्याहू से मुलाकात की तथा दोनों देशों के अटूट गठबंधन की दुहाई दी।
इस यात्रा के दौरान रुबियो ने यहूदी धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र स्थल ‘वेस्टर्न वाल’ पर सिर पर किप्पा रखकर नेतन्याहू के साथ प्रार्थना करते हुए यह दर्शाया कि ट्रंप प्रशासन हर कदम पर प्रधानमंत्री नेतन्याहू के साथ खड़ा रहेगा।
इसके तुरंत बाद नेतन्याहू ने घोषणा की कि इजराइल ‘‘हमास के आतंकवादियों’’ को कहीं भी निशाना बनाने का अधिकार रखता है। उन्होंने कतर से मांग की है कि वह अपने यहां से हमास के पदाधिकारियों को निष्कासित करे, अन्यथा इजराइल के प्रकोप का सामना करे।
'ग्रेटर इजराइल' की ओर बढ़ते कदम
नेतन्याहू और उनके चरमपंथी मंत्रियों की भाषा और नीतियों से यह स्पष्ट होता है कि 'ग्रेटर इजराइल' की परिकल्पना उनके लिए एक प्राथमिक लक्ष्य बन चुकी है। हाल के अपने संबोधनों में भी नेतन्याहू ने इस विचार के प्रति अपनी 'गहरी निष्ठा' व्यक्त की है।
'ग्रेटर इजराइल' शब्दावली पहली बार 1967 के छह-दिवसीय युद्ध के बाद चर्चा में आई थी, जब इजराइल ने वेस्ट बैंक, पूर्वी यरुशलम, गाजा, गोलान हाइट्स और सिनाई प्रायद्वीप पर कब्जा किया था। यह विचार 1977 में लिकुड पार्टी के संविधान में भी शामिल किया गया, जिसमें कहा गया कि ‘‘समुद्र से लेकर जॉर्डन नदी तक केवल इजराइली संप्रभुता होगी।’’
पिछले वर्ष नेतन्याहू ने घोषणा की थी कि इजराइल को जॉर्डन नदी के पश्चिमी हिस्से पर संपूर्ण 'सुरक्षा नियंत्रण' चाहिए। उन्होंने कहा था, ‘‘(भले ही) यह (फलस्तीनी) संप्रभुता के विचार से टकराता है, लेकिन (इसमें) हम क्या कर सकते हैं?’’
नेतन्याहू अब गाजा पट्टी पर कब्जा करने की स्थिति में हैं। इसके बाद वेस्ट बैंक में 700,000 से अधिक यहूदी बसावटों पर इजराइल का अधिकार औपचारिक रूप से स्थापित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, लेबनान और सीरिया में भी इजराइल की सैन्य उपस्थिति बनी हुई है, जिसे हटाने की कोई योजना नहीं है।
हालांकि, अमेरिका ने सार्वजनिक रूप से 'ग्रेटर इजराइल' के विचार का समर्थन नहीं किया है, पर अमेरिकी राजदूत माइक हकाबी जैसे प्रभावशाली लोग इस योजना के पक्षधर रहे हैं।
विश्व क्या कर सकता है?
लगभग दो वर्षों से गाजा में चल रहे सैन्य अभियानों के बावजूद, नेतन्याहू अंतरराष्ट्रीय आलोचना और मानवाधिकार संगठनों की चेतावनियों को नजरअंदाज़ करते आ रहे हैं। अमेरिका का अटूट समर्थन (सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक) उन्हें निरंतर मजबूती देता रहा है।
नेतन्याहू पर यह आरोप भी लग रहे हैं कि उन्होंने हमास के कब्जे में बचे इजराइली बंधकों की सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी और युद्धविराम की जनभावनाओं की अनदेखी की।
अब जबकि कई पश्चिमी देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में फलस्तीन को मान्यता दिए जाने की संभावना है, नेतन्याहू और अमेरिका दोनों ने इसे ‘निरर्थक प्रतीकात्मकता’ कहकर खारिज कर दिया है।
यदि वास्तव में इजराइल को उसकी वर्तमान राह से हटाना है, तो केवल शब्दों से नहीं, बल्कि कठोर प्रतिबंधों, सैन्य और आर्थिक सहयोग समाप्त करने जैसे ठोस कदमों से ही संभव है, अन्यथा 'ग्रेटर इजराइल' की योजना को साकार होते देर नहीं लगेगी और इसका खामियाज़ा न केवल फलस्तीनियों और पूरे क्षेत्र को भुगतना होगा, बल्कि इजराइल की वैश्विक साख भी गंभीर रूप से प्रभावित होगी।
जब नेतन्याहू सत्ता से हटेंगे, तो संभव है कि वे एक ऐसे इजराइल को पीछे छोड़ जाएं, जिसकी अंतरराष्ट्रीय छवि नष्ट हो चुकी हो और जिसे सुधरने में लंबा समय लग सकता है।
(द कन्वरसेशन) सुरेश