न्यायाधिकरण सुधार कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित
सुरेश नरेश
- 11 Nov 2025, 08:26 PM
- Updated: 08:26 PM
नयी दिल्ली, 11 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को ‘न्यायाधिकरण सुधार (युक्तिकरण और सेवा शर्तें) अधिनियम, 2021’ की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
इस कानून में फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण सहित कुछ अपीलीय न्यायाधिकरणों को समाप्त किया गया है और विभिन्न न्यायाधिकरणों के न्यायिक और अन्य सदस्यों की नियुक्ति तथा कार्यकाल से संबंधित विभिन्न शर्तों में संशोधन किया गया है।
याचिकाओं में 2021 के कानून को इस आधार पर चुनौती दी गई है कि यह उच्च्तम न्यायालय के उन फैसलों के विपरीत है, जिनमें कहा गया कि न्यायाधिकरण के सदस्यों का कार्यकाल कम से कम पांच वर्ष का होना चाहिए कम से कम 10 वर्ष का अनुभव रखने वाले वकील को इसका सदस्य बनने के लिए पात्र माना जाना चाहिए।
प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी द्वारा अपनी दलीलें पूरी करने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया। वेंकटरमणी ने पीठ से आग्रह किया कि यह कानून लंबी अवधि के बाद संसद द्वारा बनाया गया है और कानून को लागू रहने दिया जाए।
शीर्ष अदालत ने 16 अक्टूबर को मामले में अंतिम सुनवाई शुरू की थी और वरिष्ठ अधिवक्ताओं- अरविंद दातार, गोपाल शंकरनारायण, सचित जॉली तथा पोरस एफ. काका- की दलीलें सुनी थीं।
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि इसका उद्देश्य चयन प्रक्रियाओं में एकरूपता लाना है। उन्होंने कहा, ‘‘कृपया इस बात पर अड़े न रहें कि आप एमबीए-तृतीय या चतुर्थ (पूर्ववर्ती निर्णयों) से बंधे हैं। ये पूरी कहानी का केवल एक हिस्सा, एक अध्याय हैं...।’’
मुख्य याचिकाकर्ता मद्रास बार एसोसिएशन की ओर से पेश हुए दातार ने इसके जवाब में कहा कि अधिनियम के कुछ प्रावधान पिछले निर्णयों के विपरीत हैं।
उन्होंने न्यायाधिकरण के सदस्य बनने के लिए न्यूनतम आयु सीमा 50 वर्ष करने और अध्यक्ष पद के लिए दो व्यक्तियों की सिफारिश ‘खोज-सह-चयन’ समिति द्वारा अनिवार्य किये जाने की आलोचना की।
उन्होंने न्यायाधिकरण के सदस्य/अध्यक्ष के लिए चार वर्ष के कार्यकाल के प्रावधान का भी विरोध किया।
उन्होंने यह भी कहा कि अध्यक्ष पद के लिए सिफारिश हेतु दो नामों का प्रावधान नहीं होना चाहिए।
पीठ ने सोमवार को पूछा था कि केंद्र उसी न्यायाधिकरण सुधार कानून को कुछ मामूली सुधार के साथ कैसे ला सकता है जिसके कई प्रावधानों को उसने पहले ही रद्द कर दिया था।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘मुद्दा यह है कि संसद उसी कानून (जिसे रद्द कर दिया गया था) को इधर-उधर कुछ मामूली बदलावों के साथ कैसे लागू कर सकती है। आप वही कानून नहीं बना सकते।’’ न्यायमूर्ति गवई ने यह टिप्पणी तब की जब अटॉर्नी जनरल ने पीठ से आग्रह किया कि संसद को अपने अनुभव के आधार पर कानून बनाने से नहीं रोका जा सकता है।
अटॉर्नी जनरल ने कानून का बचाव करते हुए कहा कि यह सरकार के भीतर ‘‘विस्तृत विचार-विमर्श’’ का परिणाम है, न कि ‘कल्पना की उपज’। उन्होंने कहा, ‘‘संसद ने जवाबदेही, विश्वास और दक्षता के मुद्दों पर अपना दिमाग लगाया है।’’
वेंकटरमणी ने कहा कि 2021 का अधिनियम न्यायिक स्वतंत्रता और प्रशासनिक दक्षता के बीच संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है, और संसद न्यायाधिकरणों को नियंत्रित करने वाले ढांचे पर कानून बनाने के अपने अधिकार के भीतर है।
शीर्ष विधि अधिकारी ने कहा कि अधिनियम के तहत नियुक्तियों पर कार्यकारी नियंत्रण अत्यधिक नहीं है।
छोटे कार्यकाल के मुद्दे पर, विधि अधिकारी ने कहा कि एकल पुनर्नियुक्ति के साथ पांच साल के कार्यकाल के लिए अधिनियम का प्रावधान ‘‘रोजर मैथ्यू (2019) मामले’’ में शीर्ष अदालत की पहले की चिंताओं का समाधान करता है, जिसमें सक्षम पेशेवरों को आकृष्ट करने में बाधा के तौर पर ‘कम अवधि के कार्यकाल’ की आलोचना की गई थी।
याचिकाओं में कानून के प्रावधानों को इस आधार पर चुनौती दी गई है कि ये प्रावधान न्यायिक स्वतंत्रता और शक्ति विभाजन के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
न्यायाधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 ने पहले के न्यायाधिकरण सुधार (युक्तिकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश, 2021 का स्थान लिया, जिसे इसी तरह की संवैधानिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था।
शीर्ष अदालत ने अध्यादेश के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था, जिसने न्यायाधिकरण के सदस्यों और अध्यक्षों का कार्यकाल घटाकर चार साल कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा था कि छोटा कार्यकाल न्यायपालिका पर कार्यकारी प्रभाव को बढ़ावा दे सकता है।
उसने माना था कि सेवा की सुरक्षा के लिए कार्यकाल पांच वर्ष होना चाहिए, जिसमें अध्यक्षों के लिए अधिकतम आयु 70 वर्ष और सदस्यों के लिए 67 वर्ष होनी चाहिए।
पीठ ने न्यायाधिकरणों में नियुक्तियों के लिए न्यूनतम आयु 50 वर्ष के प्रावधान को भी रद्द कर दिया था।
सरकार अप्रैल 2021 में अध्यादेश लेकर आई थी। शीर्ष अदालत के फैसले के बाद, सरकार ने अगस्त 2021 में संशोधित कानून पेश किया और पारित किया, जिसमें लगभग वैसे ही प्रावधान थे, जिन्हें रद्द कर दिया गया था।
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