फौजदारी न्याय प्रशासन ‘सबसे उपेक्षित क्षेत्र’ : न्यायमूर्ति ललित
धीरज रंजन
- 16 Nov 2025, 04:42 PM
- Updated: 04:42 PM
नयी दिल्ली, 16 नवंबर (भाषा) भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश यू यू ललित ने निराशाजनक दोषसिद्धि दर पर चिंता व्यक्त करते हुए रविवार को कहा कि फौजदारी न्याय प्रशासन सरकारी तंत्र में सबसे उपेक्षित क्षेत्र है।
ललित ने इसी के साथ पुलिस की जांच शाखा को सामान्य कानून व्यवस्था संबंधी कर्तव्यों में शामिल शेष पुलिस बल से अलग करने का समर्थन किया।
पूर्व प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) ने आपराधिक कानूनों के दुरुपयोग को रोकने तथा किसी भी निर्दोष पर मुकदमा न चलाया जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए सुधारों की वकालत की। उन्होंने कहा कि वह नहीं चाहेंगे कि उनकी बेटियां ऐसे माहौल में रहें, जहां कानूनों के दुरुपयोग की थोड़ी सी भी आशंका हो।
न्यायमूर्ति ललित ने ‘एकम न्याय फाउंडेशन’ द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि पिछले 42 वर्षों से एक वकील, न्यायाधीश और कानून के प्रोफेसर के रूप में उन्होंने देखा है कि देश के आपराधिक न्यायशास्त्र और उसके प्रशासन के तरीके में, ‘‘आपराधिक न्याय प्रशासन शायद सरकारी तंत्र में सबसे उपेक्षित क्षेत्र है’’।
उन्होंने कहा कि पुलिस अधिकारियों या जांचकर्ताओं के पास उस प्रकार के पेशेवर साधन या शिक्षा नहीं है जिसकी पुलिस को आवश्यकता है।
पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘शायद यही वह शिकायत थी जो उच्चतम न्यायालय ने प्रसिद्ध प्रकाश सिंह मामले (पुलिस सुधारों को अनिवार्य करने वाले 2006) में व्यक्त की थी कि हमें जांच शाखा को सामान्य कानून-व्यवस्था के मुद्दों से अलग करना चाहिए, ताकि एक ही पुलिस अधिकारी कानून और व्यवस्था के प्रभारी व्यक्ति और जांचकर्ता के रूप में दोहरी भूमिका न निभाए।’’
उन्होंने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में 1973 में बदलाव किया गया था, जिसमें मजिस्ट्रेट द्वारा गवाहों के बयान दर्ज करने और फिर मामले को सुनवाई के लिए सौंपने की पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया था।
पूर्व सीजेआई न्यायमूर्ति ललित ने कहा, ‘‘हम अब पुलिस द्वारा धारा 161 (सीआरपीसी) या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) के तहत दर्ज किए गए बयानों से संतुष्ट हैं, लेकिन इन बयानों पर कभी हस्ताक्षर नहीं किए जाते हैं, और जब मामला सुनवाई के लिए पहुंचता है तो कई बयानों को पलट दिया जाता है।’’
उन्होंने कहा कि इस विशेष स्थिति में, देश भर में आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि की दर लगभग 20 प्रतिशत बनी हुई है।
पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘धारा 498ए (विवाहित महिला द्वारा क्रूरता के आरोपों से संबंधित) या इससे संबंधित मामलों को लें, जिसमें दोषसिद्धि की दर पांच प्रतिशत से भी कम है। यह आपको पूरी कहानी बता देता है।’’
न्यायमूर्ति ललित ने आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि आपराधिक मामलों में जेलों में बंद पांच में से चार विचाराधीन कैदियों को अंततः बरी कर दिया जाता है।
उन्होंने कहा, ‘‘तो इसका क्या अभिप्राय है? क्या हम किसी ऐसे व्यक्ति को हिरासत में नहीं ले रहे हैं जो अंततः पूरी तरह से निर्दोष पाया जाएगा या कम से कम यह कहा जाएगा कि उसके खिलाफ अपराध साबित नहीं हुआ है?’’
उन्होंने कहा कि एक बार एक वकील ने पूरी प्रक्रिया का मजाकिया अंदाज में वर्णन करते हुए कहा था कि कानून प्रवर्तन मशीनरी बिल्लियों की तरह है, जिन्हें चूहों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया जाता है।
पूर्व सीजेआई न्यायमूर्ति ललित ने कहा, ‘‘तथाकथित चूहों के पीछे 10 साल तक दौड़ने के बाद आखिरकार पता चला कि वह चूहा नहीं, बल्कि खरगोश था। अब समाज कहां खड़ा है? इसलिए, क्या हमें अपनी व्यवस्था को इस तरह से सुरक्षित नहीं करना चाहिए कि शायद निर्दोष खरगोशों के पीछे न भागा जाए और उन्हें जीवन भर के लिए पीछा न करना पड़े, और उस पीछा के अंत में, वे एक तरह से हांफते और हांफते हुए रह जाएं।’’
उन्होंने कहा, ‘‘तो क्या समाज ऐसे व्यक्तियों के प्रति वह दायित्व नहीं रखता जो कानूनी और नैतिक रूप से उनका बनता है?’’
पूर्व सीजेआई ने कहा कि इसका समाधान यह है कि ‘‘तंत्र को इस तरह सक्रिय किया जाए कि किसी निर्दोष के न्यायालय तक पहुंचने, किसी निर्दोष के विरुद्ध मुकदमा चलाए जाने तथा किसी निर्दोष के पूरी प्रक्रिया से थक जाने की आशंका समाप्त हो जाए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘मैं नहीं चाहूंगा कि मेरी बेटियां ऐसे माहौल में रहें जहां कानूनों के दुरुपयोग की थोड़ी सी भी आशंका हो।’’
सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति ललित ने दुष्कर्म कानूनों के दुरुपयोग के संबंध में कहा कि मजिस्ट्रेट, पहले उपलब्ध अवसर पर, कथित पीड़िता का बयान दर्ज कर सकता है, ताकि यह शपथ के तहत दिया गया बयान या स्वीकारोक्ति बन जाए, न कि केवल पुलिस द्वारा दर्ज किया गया बयान।
उन्होंने कहा, ‘‘शायद हमारी प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि यदि कोई झूठा आरोप लगाया गया हो, तो झूठे या दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के आरोप को पहले मुकदमे के बाद दूसरे प्रकार के मुकदमे के लिए नहीं छोड़ा जाना चाहिए, बल्कि न्यायालय के पीठासीन अधिकारी द्वारा यह निष्कर्ष दर्ज किया जाना चाहिए कि यह एक झूठा आरोप है।’’
पूर्व सीजेआई ने कहा, ‘‘झूठा आरोप लगाने वाले को दंडित किया जाना चाहिए, इसलिए हमें हर मोड़ पर, जांच के स्तर पर, मुकदमे के संचालन के स्तर पर, मजिस्ट्रेट द्वारा पूछताछ के स्तर पर इस प्रकार के सुरक्षा वाल्व रखने होंगे।’’
न्यायमूर्ति ललित ने कहा कि कई बार युवक-युवतियां सोच समझ कर रिश्ते में प्रवेश करते हैं, लेकिन जब एक-दो साल बाद कुछ गलत होता है, तो महिला कहती है कि पुरुष ने इसका फायदा उठाया, जिसके परिणामस्वरूप आपराधिक कार्यवाही शुरू हो जाती है।
उन्होंने कहा, ‘‘अदालत में शहद लगे कैप्सूल की तरह बाते बताई जाती हैं कि शादी के बहाने या वादे पर मेरा फायदा उठाया गया, और इसलिए यह (आईपीसी की धारा) 376 (बलात्कार) 420 (धोखाधड़ी) इत्यादि के तहत एक आरोप बन जाता है।’’
पूर्व सीजेआई ने कहा कि ऐसे आरोपों में सच्चाई के तत्व हो सकते हैं, लेकिन कुछ अस्पष्ट क्षेत्र भी हैं।
पूर्व प्रधान न्यायाधीश ललित ने कहा, ‘‘अगर अस्पष्ट पहलू है जिसे हमें, एक व्यवस्था के रूप में, सुनिश्चित करना होगा कि किसी निर्दोष पर मुकदमा न चलाया जाए। उस पर मुकदमा न चलाया जाए या उसे अनावश्यक रूप से निरुद्ध या गिरफ्तार न किया जाए।’’
उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि ऐसे मामलों में आरोपी की गिरफ्तारी से जांच को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है?
पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘हो सकता है कि दो साल पहले कुछ हुआ हो, या कुछ ऐसा ही हुआ हो। फिर भी, हम दिन-प्रतिदिन यह पाते हैं कि जांचकर्ता उस व्यक्ति को अपने हित में निरुद्ध रखते हैं। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें गहन समझ की आवश्यकता है।’’
भाषा धीरज