पर्यावरण कानून में विकास का श्रेय मुख्यतः जनहित याचिकाओं को जाता है : न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह
सुरेश अविनाश
- 18 Nov 2025, 09:49 PM
- Updated: 09:49 PM
नयी दिल्ली, 18 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश एन. कोटिश्वर सिंह ने कहा है कि भारत में पर्यावरण कानून के विकास का श्रेय मुख्यतः जनहित याचिकाओं (पीआईएल) के विकास को दिया जा सकता है।
न्यायमूर्ति सिंह ने यह टिप्पणी 13 नवंबर को ब्राज़ील के बेलेम में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन 2025 को संबोधित करते हुए की।
इस सम्मेलन को संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन के पक्षकारों का सम्मेलन (सीओपी) भी कहा जाता है। इसका आयोजन 10 से 21 नवंबर तक किया जा रहा है।
न्यायिक सक्रियता से चिह्नित संक्रमण काल के बारे में चर्चा करते हुए न्यायमूर्ति सिंह ने कहा, ‘‘पर्यावरण जागरूकता का यह चरण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शुरू किए गए क्रांतिकारी परिवर्तन अर्थात भारत में जनहित याचिकाओं के उदय के साथ मेल खाता है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘पर्यावरण कानून में विकास का श्रेय काफी हद तक 1970 और 1980 के दशक के उत्तरार्ध में जनहित याचिकाओं के विकास को दिया जा सकता है।’’
उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रक्रिया संबंधी एक नयी पहल की, जिसके तहत लोकस स्टैंडी (अदालत में याचिका दायर करने का अधिकार) की अवधारणा को व्यापक अर्थ दिया गया। इसके परिणामस्वरूप, किसी भी जन-हितैषी नागरिक या संगठन को ऐसे मुद्दों पर अदालत के सामने जाने की अनुमति मिल गई, जो पूरे समाज या जनता को प्रभावित करते हों।
न्यायमूर्ति सिंह ने रेखांकित किया कि सर्वोच्च न्यायालय याचिका दायर करने के अधिकार की अवधारणा की पारंपरिक आवश्यकता से आगे बढ़ गया है, जहां केवल पीड़ित पक्ष ही निवारण की मांग कर सकते थे।
उन्होंने कहा, ‘‘इस प्रक्रियात्मक नवाचार के समानांतर, सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के दायरे का विस्तार करके, इसकी व्यापक भाषा और मानवतावादी व्याख्या के आधार पर, पर्यावरण संरक्षण को भी इसमें शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर रहा है।’’
न्यायाधीश ने कहा कि ‘‘जनहित याचिका और अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या का सम्मिश्रण’’ भारत के पर्यावरणीय न्यायशास्त्र का ‘‘आधार’’ बन गया और उसके बाद, 1980 के दशक से, सर्वोच्च न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए, जिन्होंने भारतीय कानून में पर्यावरणीय सिद्धांतों को दृढ़ता से स्थापित किया।
हालांकि, न्यायमूर्ति सिंह ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय को अक्सर विशेषज्ञ ढांचे के बिना जटिल वैज्ञानिक और पारिस्थितिक निर्णय लेने की चुनौती का सामना करना पड़ता है।
उन्होंने कहा कि 1984 की भोपाल गैस त्रासदी जैसी बड़ी औद्योगिक आपदाओं का अनुभव एक चेतावनी थी, जिसके बाद शीर्ष न्यायालय ने बड़े पैमाने पर कठोर दायित्व के कानूनी सिद्धांत का पालन किया।
उन्होंने कहा कि ‘‘पूर्ण दायित्व का विशिष्ट भारतीय सिद्धांत’’ 1986 के ‘‘एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ’’ मामले में उत्पन्न हुआ, जहां यह माना गया कि खतरनाक गतिविधियों में लगे उद्यम बिना किसी अपवाद के, किसी भी नुकसान के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं।
उन्होंने कहा कि न्यायिक गति को संस्थागत बनाने के लिए, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (2010) की स्थापना ने भारत को पर्यावरणीय विवादों के त्वरित और वैज्ञानिक निर्णय के लिए एक विशिष्ट मंच प्रदान किया।
न्यायमूर्ति सिंह ने कहा, ‘‘इन सभी विकासों ने पर्यावरण संरक्षण को नीतिगत मामले से एक सतत संवैधानिक प्रतिबद्धता में बदल दिया, जहां न्यायपालिका राष्ट्र की पारिस्थितिक चेतना की व्याख्याकार और प्रवर्तक, दोनों रूप में उभरी।’’
न्यायमूर्ति सिंह ने कहा, ‘‘जैसे-जैसे हम 21वीं सदी में आगे बढ़ रहे हैं, नयी चुनौतियों के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय की पर्यावरणीय भूमिका निरंतर विकसित हो रही है। दो महत्वपूर्ण और संबंधित विषय उभरकर सामने आते हैं: जलवायु संकट का समाधान (अक्सर सतत विकास के दृष्टिकोण से) और बुनियादी ढांचे के विस्तार के बीच जैव विविधता की रक्षा करना।’’
भाषा सुरेश