आपातकाल के बाद संविधान में जनमत संग्रह को शामिल करने के लिए असफल प्रयास किये गये
वैभव सुरेश
- 24 Jun 2025, 04:59 PM
- Updated: 04:59 PM
नयी दिल्ली, 24 जून (भाषा) भारतीय संविधान निर्माताओं ने ‘जनमत संग्रह’ को संविधान से बाहर रखने के लिए बहुत संघर्ष किया था, हालांकि आपातकाल के बाद 1978 में एक ऐसा भी मौका आया, जब यह संविधान का हिस्सा लगभग बनने ही वाला था, लेकिन अंतत: ऐसा नहीं हुआ।
तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने आपातकाल जैसी स्थिति की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए एक अतिरिक्त ‘सुरक्षा’ उपाय के रूप में जनमत संग्रह को संविधान का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव रखा था। उसने इसे लोकसभा में पारित भी करवा लिया, लेकिन राज्यसभा में पारित नहीं होने के कारण इस विचार को त्यागना पड़ा।
जनता पार्टी की सरकार होने के बावजूद इसके कई नेता और सरकार के सहयोगी भी जनता के पास वापस जाने के इस विचार से बहुत सहज नहीं थे।
तत्कालीन कानून मंत्री शांति भूषण द्वारा प्रस्तावित 1978 के संविधान संशोधन विधेयक में आपातकाल को एक उदाहरण के रूप में उद्धृत किया गया था और संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए जीवन और स्वतंत्रता सहित मौलिक अधिकारों को क्षणिक बहुमत से छीने जाने का हवाला दिया गया था।
इसमें कहा गया था कि भविष्य में ऐसी आकस्मिक स्थिति की पुनरावृत्ति के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करना तथा यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि लोग स्वयं सरकार के स्वरूप को निर्धारित करने में प्रभावी तरीके से अपना पक्ष रख सकें।
इस विधेयक में प्रस्ताव था कि संविधान में ‘कुछ परिवर्तन’ केवल तभी किए जा सकते हैं जब उन्हें भारत के लोगों द्वारा जनमत संग्रह में बहुमत से अनुमोदित किया जाए, जिसमें कम से कम 51 प्रतिशत मतदाता भाग लें।
यह उन संविधान संशोधनों के लिए लागू होता जो धर्मनिरपेक्ष या लोकतांत्रिक चरित्र को नुकसान पहुंचा सकते हैं, मौलिक अधिकारों को कम कर सकते हैं या छीन सकते हैं, वयस्क मताधिकार के आधार पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को प्रभावित या बाधित कर सकते हैं तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता कर सकते हैं।
भूषण को संसद में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था, जिसमें उनके अपने कुछ सहयोगी भी शामिल थे, तथा कई लोगों ने पूछा कि क्या यह सरकार चुनते समय लोगों द्वारा पहले से दिए गए जनादेश पर भरोसा न करने के समान नहीं है।
कुछ सांसदों ने बार-बार जनता के पास जाने से होने वाले भारी खर्च का भी सवाल उठाया, जबकि कुछ ने संदेह जताया कि सत्ता में बैठी सरकार हिंदी थोपने जैसे बहुमत के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जनमत संग्रह का इस्तेमाल कर सकती है।
कुछ ने इस विचार का समर्थन किया, लेकिन कहा कि जनमत संग्रह 75 प्रतिशत मतदाताओं के लिए होना चाहिए, जबकि कुछ अन्य ने संविधान में जनमत संग्रह का प्रावधान शामिल करने की वकालत करते हुए कहा कि इससे लोगों को किसी सांसद या सरकार के काम से संतुष्ट नहीं होने पर उसे वापस बुलाने का अधिकार मिलेगा।
दोनों सदनों में लंबी चर्चा के बाद इस विचार को छोड़ना पड़ा, जहां मंत्री ने खुद कई मौकों पर स्वीकार किया कि वह शायद इस विचार को ठीक से पेश नहीं कर पाए।
देश के संसदीय इतिहास में यह भी पहली बार हुआ कि लोकसभा द्वारा पारित संविधान संशोधन विधेयक को राज्यसभा ने वापस कर दिया और विधेयक को उच्च सदन द्वारा खारिज किए गए अंशों के अनुसार संशोधित करना पड़ा।
लोकसभा में भी भूषण के जनमत संग्रह प्रस्ताव पर जोरदार चर्चा हुई और कुछ दिलचस्प बातें समाजवादी सांसद एच वी कामथ की ओर से आईं, जो संविधान निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्य भी थे।
लोकसभा और उससे पहले संविधान सभा में लगभग सभी चर्चाओं में शामिल होने वाले कामथ ने भूषण को सुझाव दिया कि जनमत संग्रह केवल 75 प्रतिशत मतों के साथ ही सफल माना जाना चाहिए, हालांकि वह मतदाताओं के एक-तिहाई समर्थन पर भी सहमत हो सकते थे।
उन्होंने संविधान सभा में यह भी सुझाव दिया था कि किसी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को अपने सांसद द्वारा उनके कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन न करने पर उन्हें पद से हटाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। कामथ के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया।
संविधान के मूल मसौदे में जनमत संग्रह के माध्यम से कानून बनाने के मामलों पर लोगों द्वारा सीधे मतदान का प्रावधान नहीं था, लेकिन संविधान सभा में कई सदस्यों ने राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय लिपि, राष्ट्रगान, अंतरराष्ट्रीय अंक और गोहत्या जैसे मुद्दों पर इसकी मांग की।
तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने संविधान में जनमत संग्रह के लिए कोई प्रावधान नहीं होने का उल्लेख करते हुए सभी मांगों को खारिज कर दिया।
डॉ बी आर आंबेडकर ने कहा कि संशोधन का अधिकार केंद्र और प्रातीय विधायिका के पास है।
भाषा
वैभव