निष्पक्ष सुनवाई के अभाव में न्याय व्यवस्था से उम्मीद खत्म हो सकती है: दिल्ली उच्च न्यायालय
प्रशांत नेत्रपाल
- 12 Aug 2025, 09:42 PM
- Updated: 09:42 PM
नयी दिल्ली, 12 अगस्त (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने गाजियाबाद के राज नगर इलाके में एक व्यक्ति की हत्या से संबंधित 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में दोबारा सुनवाई का आदेश देते हुए कहा है कि यदि मामले में निष्पक्ष जांच और सुनवाई नहीं की गई तो इससे लोगों का “हमारी न्याय व्यवस्था से भरोसा उठ सकता है और समाज के हितों से समझौता हो सकता है”।
न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने 11 अगस्त को यह आदेश पारित किया। पीठ ने 1986 के फैसले की सत्यता निर्धारित करने के लिए मामले का स्वतः संज्ञान लिया था, क्योंकि प्रथम दृष्टया उसे जांच और “जल्दबाजी” से की गई पूर्व कार्यवाही में खामियां नजर आई थीं।
पीठ ने कहा कि अधीनस्थ अदालत के गलत फैसले के परिणामस्वरूप “व्यक्ति की पत्नी और बच्चों के साथ न्याय नहीं हुआ और उन्हें निष्पक्ष सुनवाई के उनके मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया गया, क्योंकि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने कानून की कई स्पष्ट त्रुटियां की थीं।”
इसने कहा, “इन त्रुटियों के परिणामस्वरूप न्याय में चूक हुई है, जो इस तथ्य से स्पष्ट है कि सांप्रदायिक रंग लिए हुए हत्या और आगजनी जैसे गंभीर अपराध की न तो जांच एजेंसी द्वारा उचित जांच की गई और न ही अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा उचित तरीके से सुनवाई की गई। परिणामस्वरूप, मृतक हरभजन सिंह की पत्नी और बच्चों सहित पीड़ितों को अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष जांच और सुनवाई के उनके बहुमूल्य मौलिक अधिकार से वंचित किया गया है, जिसे यदि ठीक नहीं किया गया, तो हमारी न्याय व्यवस्था से (लोगों का) भरोसा समाप्त हो सकता है और समाज के हितों के साथ समझौता हो सकता है।”
अदालत ने कहा कि केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) सबूत जुटाने के लिए पर्याप्त प्रयास करने में विफल रहा।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, मृतक की पत्नी ने आरोप लगाया था कि कुछ लोगों ने उसके पति और उसके घर में आग लगा दी, जिससे उसकी मौत हो गई।
निचली अदालत ने हालांकि मई 1986 में चारों आरोपियों को आगजनी और हत्या के आरोपों से यह कहते हुए बरी कर दिया कि महिला द्वारा पुलिस और अदालत में दिए गए बयानों में विरोधाभास था।
अदालत ने शिकायत दर्ज करने में हुई देरी की ओर भी इशारा किया था।
अपने आदेश में, न्यायालय ने कहा कि घटना को 40 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है और कहा कि यह निस्संदेह एक ‘असाधारण मामले’ की श्रेणी में आता है, जिसके लिए मई 1986 में पारित बरी करने के आदेश को रद्द करना तथा पुनः सुनवाई का निर्देश देना आवश्यक है।
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