लोगों की आकांक्षाएं राज्यपालों की ‘‘मनमर्जी’ के अधीन नहीं हो सकतीं: बंगाल सरकार ने न्यायालय से कहा
देवेंद्र अविनाश
- 03 Sep 2025, 06:55 PM
- Updated: 06:55 PM
नयी दिल्ली, तीन सितंबर (भाषा) पश्चिम बंगाल सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि विधेयक के रूप में जनता की आकांक्षाओं को राज्यपालों और राष्ट्रपति की ‘‘मनमर्जी और इच्छाओं’’ के अधीन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कार्यपालिका को विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से रोका गया है।
तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) शासित राज्य सरकार ने प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ से कहा कि राज्यपाल संप्रभु की इच्छा पर सवाल नहीं उठा सकते हैं और विधानसभा द्वारा पारित विधेयक की विधायी क्षमता की जांच करने के लिए आगे नहीं बढ़ सकते हैं, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है।
इस बारे में राष्ट्रपति संदर्भ (प्रेसीडेंशियल रेफरेंस) पर सातवें दिन सुनवाई हुई कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के विचार करने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है।
पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर भी शामिल हैं।
पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘जनता की आकांक्षा कार्यपालिका (राज्यपाल और राष्ट्रपति) की मनमर्जी और इच्छाओं के अधीन नहीं हो सकती। कार्यपालिका को कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से प्रतिबंधित किया गया है। संप्रभु की इच्छा सर्वोच्च है।’’
पीठ ने हालांकि पूछा, ‘‘आपकी दलीलों के संदर्भ में, क्या आपका यह कहना है कि विधेयकों को मंजूरी देनी होगी, भले ही वे विधायी क्षेत्राधिकार के अनुरूप न हों और उनकी वैधता का परीक्षण अदालतों में किया जा सकता है?’’
सिब्बल ने कहा कि कार्यपालिका संप्रभु की इच्छा में बाधा नहीं बन सकती और किसी कानून की संवैधानिकता का परीक्षण न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए, न कि कार्यपालिका द्वारा।
उन्होंने कहा कि राज्यपालों को विधेयकों पर तत्काल निर्णय लेना होगा, न कि तीन या छह महीने की अवधि में।
सिब्बल ने कहा कि आजादी के बाद से शायद ही कोई ऐसा उदाहरण है जब राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित विधेयक को इसलिए रोक दिया हो क्योंकि यह लोगों की इच्छा थी।
उन्होंने कहा, ‘‘किसी कानून को नागरिकों या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अदालत में चुनौती दी जा सकती है। यह दुर्लभ से दुर्लभतम मामला है कि राज्यपाल यह कहें कि मैं विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता और इसे रोक सकता हूं।’’
उन्होंने कहा कि एक बार जब कोई विधेयक विधानमंडल द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो उसकी संवैधानिकता की धारणा बन जाती है।
सिब्बल ने कहा, ‘‘विधायिका को संवैधानिकता से कोई सरोकार नहीं है और यह आपके अधिकार क्षेत्र का मामला है।’’
पीठ ने पूछा कि क्या राज्यपाल को केन्द्रीय कानून के साथ विधेयक के विरोधाभासी होने के मामलों में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।
पीठ ने कहा कि तब राज्यपाल को यह देखने के लिए अपने विवेक का इस्तेमाल करना होगा कि विधेयक विरोधाभासी है या नहीं, हालांकि कोई भी व्यक्ति रूपरेखा पर तर्क दे सकता है, लेकिन राज्यपाल केवल एक डाकिया या एक सुपर विधायी निकाय नहीं हो सकते।
सिब्बल ने कहा, ‘‘राज्य विधानमंडल की संप्रभुता संसद की संप्रभुता जितनी ही महत्वपूर्ण है। क्या राज्यपाल को इसमें देरी करने की अनुमति दी जानी चाहिए? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है... आप मतभेद पैदा नहीं कर सकते।’’
उन्होंने कहा, ‘‘संविधान की व्याख्या इस तरह से की जानी चाहिए कि वह व्यावहारिक हो।’’
उन्होंने केन्द्र की इस दलील को चुनौती दी कि न्यायालय विधेयक को मंजूरी देने के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 200 के कुशल संचालन को सुनिश्चित करने के लिए ऐसा किया जा सकता है।
अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल को शक्तियां प्रदान करता है, जिसके तहत वे विधेयक पर अपनी सहमति दे सकते हैं, अपनी सहमति रोक सकते हैं, विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस कर सकते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।
सिब्बल ने कहा कि राष्ट्रपति भी किसी विधेयक को रोक नहीं सकते और उन्हें टिप्पणियों के साथ उसे तुरंत वापस भेजना पड़ता है।
न्यायालय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों की जांच-पड़ताल कर रहा है, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या संवैधानिक प्राधिकारी विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक स्वीकृति रोक सकते हैं और क्या न्यायालय अनिवार्य समय-सीमा लागू कर सकते हैं।
शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद 200 के तहत कहा कि राज्यपाल ऐसे विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं।
सिब्बल ने कहा कि किसी विधेयक को वापस भेजना अपने आप में एक घोषणा है, लेकिन ऐसी शक्तियों का उपयोग कानून को स्थायी रूप से रोकने के लिए नहीं किया जा सकता।
प्रधान न्यायाधीश ने इस तर्क का उल्लेख किया कि राज्यपालों के पास अनिश्चितकाल तक स्वीकृति रोकने की शक्ति है।
सिब्बल ने कहा, ‘‘यदि हम ऐसी व्याख्या करते हैं जो राज्यपाल को विधायिका की इच्छा को स्थायी रूप से अवरुद्ध करने की अनुमति देती है, तो संविधान अव्यवहारिक हो जाएगा।’’
अनुच्छेद 200 में “जितनी जल्दी हो सके” वाक्यांश पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए।
सिब्बल ने कहा कि अनुच्छेद 200 राज्यपालों को कानूनों को अवरुद्ध करने का कोई व्यक्तिगत विवेकाधिकार नहीं देता है।
उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति भवन द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों में से कई या तो ‘‘काल्पनिक’’ थे या ‘‘तथ्यों पर आधारित नहीं थे’’।
उन्होंने कहा, ‘‘पूरे सम्मान के साथ कह रहा हूं कि इनमें से कई सवालों के जवाब नहीं दिए जाने चाहिए। राज्यपाल के संदर्भ में एकमात्र मानदंड जिसके लिए आधिकारिक फैसले की आवश्यकता है, वह है अनुच्छेद 200।’’
वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यन ने भी कांग्रेस शासित कर्नाटक की ओर से इस संदर्भ के खिलाफ दलील दी।
हिमाचल प्रदेश की ओर से अधिवक्ता आनंद शर्मा पेश हुए और उन्होंने ‘प्रेसीडेंशियल रेफरेंस’ का विरोध किया।
इस मामले में सुनवाई नौ सितंबर को फिर से शुरू होगी।
भाषा
देवेंद्र