हरीश साल्वे ने न्यायिक नियुक्तियों में सुधार की वकालत की
नेत्रपाल
- 01 Nov 2025, 08:34 PM
- Updated: 08:34 PM
नयी दिल्ली, एक नवंबर (भाषा) वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने शनिवार को कहा कि भारत के कुछ बेहतरीन न्यायाधीशों की नियुक्ति उस समय हुई जब न्यायिक नियुक्तियों पर कार्यपालिका का पूर्ण नियंत्रण था। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि वर्तमान प्रणाली पर पुनर्विचार किया जाए और उसमें सुधार किया जाए।
भारतीय संविधान के 75 वर्ष होने के उपलक्ष्य में समारोह के तहत दिल्ली विश्वविद्यालय के कैम्पस लॉ सेंटर द्वारा आयोजित ‘कर्तव्यम्’ संवैधानिक व्याख्यान देते हुए साल्वे ने न्यायाधीश नियुक्ति प्रक्रिया में कॉलेजियम प्रणाली पर विचार व्यक्त किए।
पूर्व सॉलिसिटर जनरल ने कहा, ‘‘वर्ष 1991 में, हमने पूर्ण कार्यपालिका के प्रभुत्व के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, जब गठबंधन की राजनीति के शुरुआती दौर में, न्यायाधीशों की नियुक्ति में कुछ बहुत ही अजीब चीजें हुईं। उससे पहले, बेहतरीन भारतीय न्यायाधीशों में से कुछ न्यायाधीश एक ऐसी प्रणाली से आए थे, जिसमें कार्यपालिका को न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की सैद्धांतिक रूप में, पूरी स्वतंत्रता थी।’’
उन्होंने कहा कि तत्कालीन सरकार द्वारा कई ‘‘दृढ़ता से स्वतंत्र न्यायाधीशों’’ की नियुक्ति की गई थी। वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा, ‘‘लेकिन फिर चीजें बिगड़ने लगीं। हमने इसे ठीक किया और मैं उस न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा था जिसने कार्यपालिका से यह शक्ति छीनने के लिए संघर्ष किया, लेकिन यह एक अस्थायी उपाय था। यह कोई समाधान नहीं था। और जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हम अपनी उस गलती को सुधारें।’’
साल्वे ने कहा कि भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने सरकारें ‘‘बुलेट से नहीं बल्कि बैलेट’’ से बदली हैं और यह संविधान एवं लोकतंत्र की सफलता को दर्शाता है।
हालांकि, वकील ने कहा कि अब भी चुनौतियां हैं और न्यायिक सुधारों तथा सिविल सेवा की स्वतंत्रता बहाल करने की आवश्यकता है। उन्होंने संसद और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं का सम्मान किए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया और कहा कि उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्वाचन आयोग के अधिकारियों को तलब किए जाने से वह ‘‘व्यथित’’ हैं।
साल्वे ने कहा, ‘‘हाल के दिनों में जिस तरह से उच्चतम न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को तलब किया और अधिकारियों से बेरुखी से बात की उसे देखकर मुझे बहुत दुख हुआ।’’
उन्होंने कहा, ‘‘बेशक, अगर आपको कुछ गलत लगता है तो आपके (उच्चतम न्यायालय) पास न्यायिक समीक्षा का अधिकार है। (लेकिन) उनका अनादर न करें।’’
साल्वे ने कहा, ‘‘जब आप उनसे (समान दर्जे के संस्थाओं से) जवाबदेही मांगते हैं - ऐसे झूठे तथ्यों के आधार पर जो आपके सामने पेश किए गए हों -तो आप उस व्यक्ति को, जिसने एक समान दर्जे के संस्थान का अपमान किया है, यह कहने देते हैं: ‘अरे, शरारती लड़के, यहां से चले जाओ। ऐसा दोबारा ऐसा मत करना।’ क्या आप उसी तरह का नरम रुख अपनाते अगर किसी ने आपके साथ एक संस्था के तौर पर किया होता? आप एक उच्च पद पर हैं, और दोहरे मानदंड उस पद के अनुरूप नहीं हैं।’’
उन्होंने कहा, “ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि चार या पांच प्रमुख पदाधिकारी - संसद के स्पीकर, भारत के प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री, विपक्ष के सदस्य, और वरिष्ठ विपक्षी नेता — एक पैनल का गठन करें? पैनल का चयन कौन करेगा? क्या हम 1.4 अरब भारतीयों में से सात स्वतंत्र भारतीय नहीं खोज सकते और उन्हें योग्यता के आधार पर न्यायाधीशों का चयन करने दें?”
साल्वे ने कहा कि न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि 1975 का आपातकाल भारत के इतिहास में एकमात्र ऐसा समय था जब कानून के शासन को गंभीर रूप से खतरा उत्पन्न हुआ था।
भाषा
अमित नेत्रपाल
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