संविधान विधेयकों की ‘स्वतः स्वीकृति’ की अनुमति नहीं देता : उच्चतम न्यायालय
सुभाष पवनेश
- 20 Nov 2025, 07:54 PM
- Updated: 07:54 PM
नयी दिल्ली, 20 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि निर्धारित समय सीमा की समाप्ति के बाद, विधेयकों पर राज्यपाल या राष्ट्रपति की ‘स्वत: स्वीकृति’ (डीम्ड एसेंट) कार्यपालिका के कार्यों को न्यायपालिका द्वारा अपने हाथों में लेने जैसा है, जो अस्वीकार्य है।
न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए न्यायालय द्वारा लंबित विधेयकों पर स्वत: स्वीकृति की अवधारणा वस्तुतः एक अलग संवैधानिक प्राधिकार की भूमिका और कार्य को अपने हाथ में लेने की तरह है।
इस संबंध में राष्ट्रपति द्वारा राय मांगे जाने पर प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 के संदर्भ में 'स्वत: स्वीकृति' की अवधारणा यह कहती है कि एक संवैधानिक प्राधिकार, यानी न्यायालय, किसी अन्य संवैधानिक पदाधिकारी, अर्थात् राज्यपाल या राष्ट्रपति की भूमिका नहीं निभा सकता है।
पीठ ने कहा, ‘‘राज्यपाल के कार्य और इसी प्रकार राष्ट्रपति के कार्यों को इस तरह से हड़पना न केवल संविधान की भावना के प्रतिकूल है, बल्कि विशेष रूप से ‘शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत’ के भी प्रतिकूल है - जो भारतीय संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है।’’
पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं।
न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 142 पर निर्भरता संवैधानिक प्रावधानों का अतिक्रमण नहीं है।
संविधान का अनुच्छेद 142 शीर्ष अदालत को अपने समक्ष लंबित किसी भी मामले में ‘‘पूर्ण न्याय’’ करने के लिए आवश्यक कोई भी आदेश या डिक्री पारित करने का अधिकार देता है।
पीठ ने कहा, ‘‘हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि निर्धारित समय सीमा की समाप्ति पर अनुच्छेद 200 या 201 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी, न्यायिक घोषणा के माध्यम से न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के कार्यों को अपने हाथ में लेने जैसा है, जो हमारे संविधान के तहत अस्वीकार्य है।’’
संविधान का अनुच्छेद 200 विधेयकों पर स्वीकृति से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 201 विचारार्थ रखे गए विधेयकों से संबंधित है।
पीठ ने कहा कि यदि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं है, तो उनकी समाप्ति को भी ‘‘स्वत: स्वीकृति’’ नहीं माना जा सकता।
न्यायालय ने कहा कि किसी विधेयक के कानून बनने से पहले, अदालतों द्वारा उसकी विषय-वस्तु पर किसी भी तरह से न्यायिक निर्णय लेना अनुचित है।
पीठ ने कहा, ‘‘…हम स्पष्ट करते हैं कि संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 142 भी विधेयकों की ‘डीम्ड एसेंट’ की अनुमति नहीं देता है।’’
एक महत्वपूर्ण फैसले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर कोई समय-सीमा नहीं थोपी जा सकती है, तथा राज्यपालों के पास उन विधेयकों को हमेशा के लिए रोक कर रखने की ‘‘अनियंत्रित’’ शक्तियां नहीं हैं।
न्यायालय ने कहा कि राज्यपालों के पास केवल तीन विकल्प हैं - या तो वे विधेयक को मंजूरी दें या उसे राष्ट्रपति के पास भेजें या फिर मंजूरी रोककर अनुच्छेद 200 के तहत पुनर्विचार के लिए उसे विधानमंडल को वापस भेजें।
पीठ ने यह भी कहा कि विधेयकों को मंजूरी देने, रोक कर रखने या सुरक्षित रखने के राज्यपालों और राष्ट्रपति के निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आते हैं।
न्यायालय ने कहा, ‘‘हमें इस अदालत के बाध्यकारी निर्णयों का अनुसरण नहीं करने का कोई कारण नहीं मिलता है...हमारा मानना है कि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति के कार्यों पर अदालत विचार नहीं कर सकती।’’
पीठ ने कहा कि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत विकल्पों का प्रयोग करते समय राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजने या अपनी टिप्पणियों के साथ उसे विधानमंडल को लौटाने का विवेकाधिकार है तथा वह मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है।
तमिलनाडु सरकार की याचिका पर निर्णय सुनाते हुए न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला की अगुवाई वाली पीठ ने इस वर्ष अप्रैल में यह निर्धारित किया था कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर तीन महीने में मंजूरी देनी होगी।
भाषा सुभाष