न्यायालय विधेयकों की मंजूरी हेतु राज्यपाल, राष्ट्रपति के लिए समयसीमा नहीं तय कर सकता: संविधान पीठ
सुभाष माधव
- 20 Nov 2025, 09:34 PM
- Updated: 09:34 PM
नयी दिल्ली, 20 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि अदालत राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर कोई समयसीमा नहीं थोप सकती, लेकिन राज्यपालों के पास विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोककर रखने की ‘‘असीम’’ शक्तियां नहीं हैं।
राष्ट्रपति द्वारा इस विषय पर परामर्श मांगे जाने पर, प्रधान न्यायाधीश बी. आर. गवई की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपनी सर्वसम्मति वाली राय में कहा कि राज्यपालों द्वारा ‘‘अनिश्चितकालीन विलंब’’ की सीमित न्यायिक समीक्षा का विकल्प खुला रहेगा।
पीठ ने यह भी कहा कि न्यायालय अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकार का उपयोग करके किसी विधेयक की स्वतः स्वीकृति (डीम्ड एसेंट) प्रदान नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना एक ‘‘अलग संवैधानिक प्राधिकार’’ की भूमिका को अपने हाथ में लेने जैसा होगा।
न्यायालय का 111 पन्नों का यह फैसला संघीय ढांचे और राज्यों के विधेयकों पर राज्यपाल की शक्तियों को लेकर नयी बहस छेड़ सकता है।
शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि राज्यपाल लंबे समय तक, बिना कोई वजह बताए और अनिश्चित काल तक (विधेयकों पर) निर्णय नहीं लेते, तो ऐसी ‘‘निष्क्रियता’’ की सीमित न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। हालांकि, अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिये गए निर्णयों के कारण या तथ्यों की पड़ताल अदालतें नहीं कर सकतीं।
कई विधेयकों को मंजूरी देने में अनिश्चितकालीन देरी के कारण विपक्षों दलों द्वारा शासित राज्यों, खासकर तमिलनाडु, केरल और पंजाब तथा उनके और उन राज्यों के राज्यपालों के बीच अक्सर टकराव की स्थिति बनी रहती है, जिस कारण कुछ राज्य सरकारों ने शीर्ष अदालत से हस्तक्षेप का अनुरोध किया था।
पीठ की ओर से निर्णय लिखने वाले न्यायाधीश का नाम फैसले में उल्लेखित नहीं है। ऐसा कभी-कभार होता है। वर्ष 2019 में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले में अपने फैसले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस परंपरा को अपनाया था।
प्रधान न्यायाधीश गवई छह महीने के कार्यकाल के बाद रविवार को सेवानिवृत्त होने वाले हैं।
एक और महत्वपूर्ण फैसले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में राज्यपाल का विवेक मंत्रिपरिषद की सलाह पर निर्भर नहीं करता है।
शीर्ष अदालत ने रेखांकित किया कि राज्यपालों के पास केवल तीन विकल्प हैं - या तो वे विधेयकों को मंजूरी दे दें, या उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दें या फिर संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत पुनर्विचार के लिए विधानमंडलों को वापस भेज दें।
पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं। न्यायालय ने कहा कि समयसीमा लागू करना संविधान द्वारा संवैधानिक प्राधिकारों के लिए संविधान द्वारा सावधानीपूर्वक संरक्षित किये गए ‘‘लचीलेपन’’ के बिल्कुल उलट होगा।
पीठ ने कहा, ‘‘संवैधानिक रूप से निर्धारित समय-सीमा और राज्यपाल द्वारा शक्ति के प्रयोग के तरीके के अभाव में इस न्यायालय के लिए, अनुच्छेद 200 के तहत शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक रूप से समय-सीमा निर्धारित करना उचित नहीं होगा।’’
अनुच्छेद 200 राज्यपालों को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर स्वीकृति प्रदान करके, स्वीकृति रोककर रखने, या (विधेयकों को) राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखने का अधिकार देता है। वे किसी विधेयक को सुझाव के साथ या पुनर्विचार के लिए विधानमंडल को लौटा भी सकते हैं।
शीर्ष अदालत राष्ट्रपति द्वारा राय मांगे जाने पर जवाब दे रही थी, जिसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत न्यायालय से यह जानना चाहा था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों से निपटने के दौरान राष्ट्रपति द्वारा विवेक का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।
मुर्मू ने न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे थे और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय मांगी थी।
राष्ट्रपति ने यह कदम तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 8 अप्रैल को दिये गए फैसले के बाद उठाया था। फैसले में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को रोके रखने को अवैध घोषित किया गया था और कहा गया था कि उन्हें स्वत: स्वीकृत माना जाता है। न्यायालय ने विधेयकों को स्वीकृत मानने के लिए अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग किया था।
संविधान पीठ ने अपने फैसले में न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग पर भी ऐतराज जताया, जो राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए तीन महीने की अवधि निर्धारित करने के दौरान किया गया था।
न्यायालय ने कहा, ‘‘हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि निर्धारित समय सीमा की समाप्ति के बाद, अनुच्छेद 200 या 201 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी, न्यायिक घोषणा के माध्यम से न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिकों के कार्यों को अपने हाथ में लेने जैसा है, जो हमारे संविधान के तहत अस्वीकार्य है।’’
हालांकि, फैसले में राज्यपालों को आगाह भी किया गया है, जिसमें कहा गया है कि वे स्वीकृति को रोक नहीं सकते और अनुच्छेद 200 ‘‘कोई भी असीम शक्ति प्रदान नहीं करता... असल में, यह किसी भी तरह से एक उत्तरदायी संवैधानिक सरकार की अवधारणा से दूरी नहीं बनाता।’’
पीठ ने कहा, ‘‘हम स्पष्ट करते हैं... कि राज्यपाल के पास किसी विधेयक को सीधे तौर पर रोके रखने का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए, ऐसा नहीं है कि इस प्रकार प्रदत्त विवेकाधिकार ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है जिसमें राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक अटका सकें।’’
न्यायालय ने संबद्ध अनुच्छेदों का हवाला दिया और कहा कि वे समय सीमा और राज्यपाल द्वारा शक्ति के प्रयोग के तरीके को निर्धारित नहीं करते हैं और इसलिए, शीर्ष अदालत के पास “समयसीमा निर्धारित” करने का विकल्प नहीं है।
न्यायालय ने कहा कि भले ही उसकी राय का संवैधानिक पाठ तुलनात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित रहा हो, लेकिन उसकी व्याख्या और कार्यप्रणाली वास्तव में ‘‘स्वदेशी’’ है।
संविधान पीठ ने कहा कि ब्रिटेन के अलिखित संविधान के अनुभव के विपरीत, भारत का एक लिखित संविधान है।
न्यायालय ने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण के कारण अमेरिकी अनुभव काफी अलग है, जिसके लिए राष्ट्रपति के ‘वीटो’ की आवश्यकता होती है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राष्ट्रपति मुर्मू की ओर से शीर्ष अदालत के प्रति आभार व्यक्त किया।
इस बीच, तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक ने कहा कि न्यायालय द्वारा 'राज्यपालों के लिए कोई समय-सीमा नहीं' तय करना केवल एक राय है, न कि कोई फैसला।
पार्टी ने कहा कि इसलिए, यह बाध्यकारी नहीं है और अदालतों में होने वाले निर्णयों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
द्रमुक के राज्यसभा सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने कहा, ‘‘यह कोई फैसला नहीं है, बल्कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, न्यायालय द्वारा दी गई एक राय मात्र है।’’
उन्होंने चेन्नई में संवाददाताओं से कहा कि आज दी गई ऐसी राय निर्णय के दौरान न्यायालय पर बाध्यकारी नहीं होगी।
शीर्ष अदालत ने 8 अप्रैल के फैसले के बाद, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा पूछे गए 14 में से 11 सवालों पर अपनी राय दी।
भाषा सुभाष