नाबालिग पत्नी के यौन उत्पीड़न के आरोपी पति के खिलाफ मामला रद्द करने से अदालत का इनकार
नोमान अविनाश
- 20 Nov 2025, 08:44 PM
- Updated: 08:44 PM
नयी दिल्ली, 20 नवंबर (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाबालिग लड़की से शादी करने के बाद उसके साथ यौन उत्पीड़न के आरोपी व्यक्ति के खिलाफ मामला रद्द करने से इनकार कर दिया है। उच्च न्यायालय ने कहा कि अदालत किसी ऐसे कानून में कोई अपवाद नहीं जोड़ सकती, जो नाबालिग के साथ यौन संबंधों को अपराध मानता है।
अदालत ने कहा कि वह परिस्थितियों से प्रभावित है, लेकिन वह कानून से बंधी हुई है। यह उन कठिन मामलों में से एक है जहां मानवीय आधार पर न्याय की इच्छा मजबूत है, लेकिन कानून के प्रावधान उससे भी अधिक मजबूत हैं।
अदालत एक याचिका पर विचार कर रही थी जिसमें एक व्यक्ति और उसके माता-पिता ने यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम और बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत आरोपों को लेकर उनके खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले को रद्द करने की मांग की थी। पीड़िता ने कहा था कि वह अपने पति, जिससे उसका एक बच्चा है, और ससुराल वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं चाहती है और उसका कभी यौन उत्पीड़न नहीं किया गया।
न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने 2023 में दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने से इनकार करते हुए कहा कि अभियोजन को शुरू में ही खत्म करने से यह संदेश जाने का खतरा होगा कि बाल विवाह और नाबालिगों के साथ यौन संबंधों को समारोह आयोजित करके और सहवास जारी रखकर रोका जा सकता है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में मामला रद्द करना अनिवार्य रूप से इस विचार को न्यायिक समर्थन देने जैसा माना जाएगा कि नाबालिगों की शादी को कानूनी कार्रवाई से बचाया जा सकता है, बशर्ते शादी करने वाले बाद में खुद को एक स्थापित परिवार के रूप में पेश कर दें।
इसने कहा है कि अदालतें "लगभग वयस्क सहमति वाले संबंधों" के लिए अपवाद नहीं बना सकतीं, जब 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति की सहमति पॉक्सो अधिनियम के तहत अप्रासंगिक हो।
न्यायाधीश ने कहा कि चूंकि संसद ने 18 वर्ष की उम्र तय की है, जिससे कम आयु यौन सहमति को मान्यता नहीं देता, इसलिए यह अदालत संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार का उपयोग करते हुए न्याय करने के नाम पर ‘लगभग वयस्क, सहमति वाले संबंधों’ को अपवाद नहीं कह सकती।
अदालत ने कहा कि ऐसा करना व्याख्या से लेकर कानून तक की सीमा को पार करना होगा।
अदालत ने यह भी कहा कि किसी नाबालिग से जुड़े रिश्ते में बाद में हुई कोई भी घटना, चाहे वह न्याय और मानवीय आधार पर कितनी भी प्रभावशाली क्यों न लगे, जैसे दोनों का साथ रहना, बच्चे का जन्म होना, या अब पीड़िता को आपत्ति न होना, उस आचरण को वैध नहीं बना सकती, जिसे कानून ने घटना के समय अपराध माना था।
न्यायाधीश ने कहा, ‘‘इसलिए, अदालतों को उन मामलों में ‘सहमति से संबंध’ जैसी भाषा इस्तेमाल करने में सावधानी बरतनी चाहिए, जहां कानून के अनुसार एक पक्ष बच्चा (नाबालिग) हो। ऐसे मामलों में सही जांच यह होती है कि क्या अभियोजन यह साबित कर पाया है कि पीड़ित की उम्र नाबालिग थी और प्रतिबंधित कृत्य हुआ था। जब ये दोनों बातें साबित हो जाती हैं, तो नाबालिग की तथाकथित “सहमति” को आपराधिक जिम्मेदारी से बचाव के रूप में नहीं लिया जा सकता।”
प्राथमिकी की शुरुआत घरेलू हिंसा से जुड़ी एक कॉल से हुई थी। जांच के दौरान पुलिस को पता चला कि उस व्यक्ति ने लड़की से शादी तब की थी जब वह 16 साल 5 महीने की थी, और यह शादी दोनों पक्षों के माता-पिता की सहमति से हुई थी। वे पति-पत्नी की तरह साथ रह रहे थे।
अब वयस्क हो चुकी लड़की अपने बच्चे के साथ अदालत में पेश हुई और कहा कि यह रिश्ता स्वैच्छिक था तथा उसने अदालत से मामले को बंद करने का आग्रह किया।
अदालत ने प्राथमिकी को रद्द करने से इनकार कर दिया, लेकिन कहा कि पीड़िता को उसके नवजात बच्चे के साथ देखकर यह बात समझ में आई कि यह कार्यवाही एक युवा परिवार की स्थिरता से जुड़ी हुई है।
भाषा नोमान